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ए॒वा नो॑ अग्ने स॒मिधा॑ वृधा॒नो रे॒वत्पा॑वक॒ श्रव॑से॒ वि भा॑हि। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā no agne samidhā vṛdhāno revat pāvaka śravase vi bhāhi | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। नः॒। अ॒ग्ने॒। स॒म्ऽइधा॑। वृ॒धा॒नः। रे॒वत्। पा॒व॒क॒। श्रव॑से। वि। भा॒हि॒। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.९६.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:96» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पावक) आप पवित्र और संसार को पवित्र करने तथा (अग्ने) समस्त मङ्गल प्रकट करनेवाले परमेश्वर ! (समिधा) जिससे समस्त व्यवहार प्रकाशित होते हैं, उस वेदविद्या से (वृधानः) नित्यवृद्धियुक्त जो आप (नः) हमलोगों को (रेवत्) राज्य आदि प्रशंसित श्रीमान् के लिये वा (श्रवसे) समस्त विद्या की सुनावट और अन्नों की प्राप्ति के लिये (एव) ही (वि, भाहि) अनेक प्रकार से प्रकाशमान कराते हैं (तत्) उन आपके बनाये हुए (मित्रः) ब्रह्मचर्य्य के नियम से बल को प्राप्त हुआ प्राण (वरुणः) ऊपर को उठानेवाला उदान वायु (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) प्रकाशमान सूर्य्य आदि लोक (नः) हम लोगों के (मामहन्ताम्) सत्कार के हेतु हों ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिसकी विद्या के विना यथार्थ विज्ञान नहीं होता वा जिसने भूमि से लेके आकाशपर्यन्त सृष्टि बनाई है और हम लोग जिसकी उपासना करते हैं, तुमलोग भी उसी की उपासना करो ॥ ९ ॥इस सूक्त में अग्नि शब्द के गुणों के वर्णन से इसके अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह छानवाँ सूक्त और चौथा वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे पावकाग्ने समिधा वृधानस्त्वं नोऽस्मान् रेवच्छ्रवस एव विभाहि तेन त्वया निर्मिता मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिव्युतापि द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्ताम् ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) अवधारणे। निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अग्ने) सर्वमङ्गलकारक परमेश्वर (समिधा) सम्यगिध्यते प्रदीप्यते यया स्ववेदविद्यया तया (वृधानः) नित्यं वर्द्धमानः (रेवत्) राज्यादिप्रशस्ताय श्रीमते (पावक) पवित्र पवित्रकारक वा (श्रवसे) सर्वविद्याश्रवणाय सर्वान्नप्राप्तये वा (वि) विविधार्थे (भाहि) प्रकाशय (तत्) तेन (नः) अस्मान् (मित्रः) ब्रह्मचर्य्येण प्राप्तबलः प्राणः (वरुणः) ऊर्ध्वगतिहेतुरुदानः (मामहन्ताम्) सत्कारहेतवो भवन्तु (अदितिः) अन्तरिक्षम् (सिन्धुः) समुद्रः (पृथिवी) भूमिः (उत) अपि (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्य्यादिः ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यस्य विद्यया विना यथार्थविज्ञानं न जायते येन भूमिमारभ्याकाशपर्य्यन्ता सृष्टिर्निर्मिता यं वयमुपास्महे तमेव यूयमुपासीरन् ॥ ९ ॥अस्मिन् सूक्तेऽग्निशब्दगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्यम् ॥इति षण्णवतितमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! ज्याच्या विद्येशिवाय यथार्थ विज्ञान होत नाही, ज्याने भूमीपासून आकाशापर्यंत सृष्टी बनविलेली आहे व आम्ही ज्याची उपासना करतो त्याची तुम्हीही उपासना करा. ॥ ९ ॥